सम्पूर्ण मानव जाति का एक ही लक्ष्य है(कठोपनिषद्)


उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।। 

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४)
(उत्तिष्ठत, जाग्रत, वरान् प्राप्य निबोधत । क्षुरस्य निशिता धारा (यथा) दुरत्यया (तथा एव आत्मज्ञानस्य) तत् पथः दुर्गं (इति) कवयः वदन्ति ।)
जिसका अर्थ हैः उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना ।
परन्तु हम विचार करे की पहले हम उठेगे या जागेंगे तो सिद्ध होता है ,कि ये श्लोक लोकिक जगत के लिए नहीं है ,क्योकि लोकिक जगत के अनुसार पहले जगाना होता है न की उठना ৷और जानकार  श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो,इसका भी कोई अर्थ नहीं निकलता है । क्योकि भौतिक जगत के किसी काम के लिए  श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में जाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है ।
परन्तु हर किसी ने इस श्लोक का अर्थ अपनी द्रष्टि से समझा है । कोई तो अपने व्यापर ,कोई तो नोकरी ,कोई तो खेती ,कोई तो राजनीति आदि को अपना लक्ष्य समझरहा है । परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति का एक ही लक्ष्य है और बो है आत्म कल्याण ।
यथार्थ अर्थ - 
उठो- यहाँ पर उठाने का अर्थ है की अपने आत्म कल्याण के लिए कमर कसकर द्रणता से हर परिस्थिति का सामना करे । क्योंकि भक्ति का मार्ग बहुत कठिन है । 
जागो - और यहाँ पर जागने का अर्थ है की हम अज्ञानता की निद्रा में सोये हुए है अत: हम इस अज्ञानता से जगे क्योकि अज्ञानता से जगे विना आपको ज्ञान नहीं हो सकता है अर्थात भोतिक जगत मेजो हम खोये हुए है । इससे जगना ही जागना ही ।
और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना ।
अत: हमारी समझ से तो ये श्लोक परमार्थ के लिए है न की भोतिक जगत के लिए अर्थात सिर्फ और सिर्फ आत्म पथ पर चलने के लिए है और बोभी बिना रुके । क्योंकि प्रत्येक मानव का धर्म है अपनी आमा का कल्याण करना 

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