कर्म ही पूजा है (work is worship)- अपने विचार

कर्म ही पूजा है। (work is worship)- अपने विचार-  कर्म ही पूजा है। ये वाक्य सायद श्रीमद्धभगवत गीता से लिया गया है। किस प्रकार सभी कर्म पूजा में बदल जाते है इस पर वहुत विचार करने की आवश्यकता है। क्योकि आज का मानव ये समझता ही की कुछ भी करो वह कर्म है। तो कुछ लोग समझाते है की कुछ भी करो फल की इच्छा मत करो वह कर्म है। जवकि हमारे विचार से एसा नही है। क्योंकि श्रीमद्धभगवत गीता में कर्म को तीन भागों में बांटा है कर्म ,अकर्म और विकर्म तो आओ सवसे पहले हम कर्म की चर्चा करते है की कर्म क्या है। हमारे जीवन के मुख्यतः दो स्तर है। एक भौतिक स्तर एवं आध्यात्मिक स्तर तो पहले हम भौतिक स्तर की वात करते है।  


कर्म – जिस किसी सद्कर्म से समाज ,देश व राष्ट्र अथवा प्राणी मात्र का भला होता है। वही कार्य वास्तव मै करने योग्य कर्म है। आज कर्म के नाम पर लोग क्या-क्या करते है कहा नही जा सकता है।

अकर्म – निष्काम भाव से जिस किसी सद्कर्म से समाज ,देश व राष्ट्र अथवा प्राणी मात्र का भला होता है। वही कार्य वास्तव मै करने योग्य कर्म अकर्म है।  
विकर्म - किन्तु वास्तव में गीता में एसे किसी कर्म की वात नही की गई गीता में कही कर्म ,कही युद्ध तो कही यज्ञ आदि को कर्म कहा गया है। और भगवान श्री कृष्ण के अनुसार कर्म वह वस्तु है जोकि आपको जीवन और म्रत्यु से परे करदे अर्थात आपको आवागमन से मुक्त करदे अतः वो क्रिया यज्ञ अर्थात कर्म है जो आपको भवसागर से पार करदे अतः अव विचार यह करना है। की हम कोण सा कर्म करे जिससे हम पुनर्जन्म से मुक्त हो जाये ,जरा सोचे किक्या हम व्यापार ,कृषि ,नौकरी ,राजनीती ,खेल-कूद ,समाजसेवा ,देशसेवा इत्यादि करने से मुक्त हो जायगे यदि हो जाते है। तो ये सव अवश्य करें किन्तु एसा होगा नही ये तो सद्गुरु की सरण जाने वाद ही होगा और सद्गुरु के सानिध्य में वेठकर आत्मकल्याण करने की क्रिया को विकर्म अर्थात वि यहा पर विशेषता का ध्योतक जिसका अर्थ है। विशुद्ध ज्ञान से युक्त कर्म जैसे योगेश्वर कृष्ण कहते है कि – नियत कुरु कर्म अर्जुन: अर्थात हे अर्जुन तू वह कर्म कर जो नित्य है अर्थात जिसका फल नष्ट नही होता है। अर्थात जिसका फल मैं स्वमं अविनाशी परमात्मा हूँ।
अतः स्पस्ट होता है कि कर्म सिर्फ आत्म कल्याण का साधन है इसके अलावा जो भी कर्म के नाम पर किया जाता है वो सिर्फ एक सामाजिक व्यवस्था हो सकती है। नाकि कर्म और इस कर्म में सम्पूर्ण मानव जाति का अधिकार होता है देखे- -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।                      (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 2 ,श्लोक 47)
 कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।              (श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 4 ,श्लोक 34)

 उस (ज्ञान) को (गुरु के समीप जाकर) साष्टांग प्रणिपात प्रश्न तथा सेवा करके जानो ये तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे।।

Comments

  1. कर्म ही पूजा है संस्कृत में अनुवाद

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  2. धन्यवाद ।

    कर्म ही पूजा है।
    सर्व श्रेष्ठ धर्म
    सत्य कर्म करना है ।

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