इक्कीसवीं सदी और हम
इक्कीसवीं सदी और हम
आज इक्कीसवी सदी के इस वैज्ञानिक युग की चकाचौंध में मानव समाज भौतिक सुख-सुविधाओं एवं विभिन्न प्रकार की नाई खोजो में व्यस्त नजर आता है। मध्यम वर्ग के हर व्यक्ति के पास यातायात, संचार,दूरदर्सन, आदि साधनों का संग्रह है। जिसमें वच्चे,किशोर,जवानऔर वृद्ध सभी इस नए युग का आनन्द लेने में बड़े जोर-सोर से लगे हुए है। परंतु अत्यंत नजदीक से देखने पर पता चलता कि उनमे राग-द्वेष,भय-संका,चल-कपट,धोखा-धडी,राहजनी,डकेती,अपहरण,शोषण,हत्या,वलात्कार एवं आत्महत्या इत्यादि जघन्य अपराधिक प्रवृतियों की तरफ अधिक झुकाव है। जिस अनुपात में भोतिक विकाश होरहा है उसी अनुपात में स्वार्थ ,पाखंड ,आडम्बर आदि भी बढ़रहे है काल्पनिक एवं हवाई महल जीवन में अधिकतर लोग पथभ्रष्ट होरहे है।
तथाकथित धर्माचार्य एवं साधू संत जगत भी इस भोतिक प्रवाह में गोटा लगारहा है हजरों-लाखों साधू-संतों में गिने-चुने लोग ही सन्मार्ग पर चलते हुए सत्य साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील है अवशेष साधू-संत लोग प्रसिद्ध मन-सम्मान एवं आधुनिक सुख-सुविधाओं की वस्तुओं के संग्रह में होड़ लगारहे है वे लोग धर्म, ज्ञान ,भक्ति एवं वेदांत की चर्चा की आड़ में आडम्बर एवं भ्रम का ही प्रसार कर रहे है
एसी भयावह परिस्थिति में सच्चे साधक ,संत एवं भक्त का वोलवाला शून्य सा होरहा है लेकिन एक वात शाश्वत सत्य है -- सत्यमेव जयते नान्रताम ।

अर्थात सत्य की जय होती है असत्य सदैव हरता है । सत्य के पथ पर परेशानी अधिक होती है परन्तु वह द्रढ़ निश्चयता ,पूर्ण लगन तथा पूर्ण पुरुषार्थ की वजह से परास्त नहीं होता है इस अनादिकालीन जगत में जब-जब अधर्मियों ,पाखंडियों ,आतताइयों ,शोषको उत्पिनकों का बोलबाला हुआ है तब-तब अवतार ,महापुरुष ,संत ,भक्त ,सज्जन एवं सच्चे शासकों का आविर्भाव होता है क्योकि प्रकृति का यही नियम है जैसे भगवान श्री विष्णु,श्री कृष्ण ,श्री राम ,श्री बुद्ध ,श्री महावीर ,आचार्य शंकर ,आचार्य चाणक्य ,संत कवीर ,संत नामदेव ,संत गुरुनानक ,संत राम कृष्ण परमहंस ,स्वामी विवेकानंद .स्वामी दयानंद सरस्वती ,ईशा ,मूषा ,संत तुलसी दास इत्यादि और वर्तमान में संत निरंकारी बाबा हरदेव सिंह (माता सविन्दर जी ) ने जीवन से भ्रम ,आडम्बर ,पाखंड आदि का सफाया किया है ।
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम !!
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥”
(गीता अध्याय ४ श्लोक ७ तथा ८)अर्थात – जब धरती पर स्थापित धर्म की हानि हो जाती है और उसके स्थान पर अधर्म और गंदी शक्तिया हावी हो जाती है तो मैं अवतार लेकर धरा पर उतर आता हूँ। मैं हर युग में अधर्म द्वारा धर्म को पहुँचाई गई हानि को दूर करने और साधु-संतों की रक्षा के लिए अवतार लेता हूँ। इस प्रकार मैं धर्म की फिर से स्थपना के साथ ही राक्षसों सरीखे दुष्टों को तहस- नहस कर देता हूँ।
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