कर्म कोंन करता है?


कर्म का करता कोंन है ?
अर्थात कर्म करता कोंन है यह प्रश्न एक विचारणीय प्रश्न है की क्रिया का करने वाला कोंन है ? ईश्वर है या जीव है या फिर प्रकृति है  इस प्रश्न का उत्तर मिलने में बहुत भ्रम होता है कहीं ईश्वर को तो कहीं जीव को तो कहीं प्रकृति को करता माना गया है वर्तमान में भी इस विषय पर चर्चा हुई है परन्तु स्पस्ट निर्णय नहीं मिला है 

अंततः काफी विचार करने के वाद वात स्पस्ट हुई जो हमें श्री मद्भागवत गीता ,रामचरित्र मानस एवं अन्य ग्रंथों से मिलती है 

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।63।।                                                       अध्याय 2 का श्लोक 63
क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से
बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।।63।।
इस प्रकार मनसहित इन्द्रियों को वश में न करने वाले मनुष्य के पतन का क्रम बतलाकर अब भगवान् 'स्थितप्रज्ञ योगी कैसे चलता है' इस चौथे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हुए पहले दो श्लोकों में जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में होते हैं, ऐसे साधक द्वारा विषयों में विचरण किये जाने का प्रकार और उसका फल बतलाते हैं-
प्रकृतेः, क्रियमाणानि, गुणैः, कर्माणि, सर्वशः,
अहंकारविमूढात्मा, कर्ता, अहम्, इति, मन्यते।।27।।                                              अध्याय 3 का श्लोक 27
अनुवाद:  सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृति  से उत्पन्न (गुणैः) रजगुण ,सतगुण, तमगुण अर्थात् तीनों गुणोंद्वारा  संस्कार वश किये जाते हैं तो भी अहंकार युक्त शिक्षित होते हुए तत्वज्ञान हीन अज्ञानी  ‘मैं कर्ता हूँ‘ ऐसा मानता है। (27)
॥ कैवल्योपनिषत् ॥
वेदैरशेषैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् । 
न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्म देहेंद्रिय बुद्धिरस्ति ॥५५॥
सम्पूर्ण वेदों में मैं ही जानने योग्य हूँ , वेदान्त का कर्ता और देव का जाननेवाला भी मैं ही हूँ । मेरे में पाप-पुण्य नहीं है , मेरा नाश तथा जन्म नहीं , मुझसे देह , इन्द्रिय और बुद्धि का सम्बन्ध नहीं है ॥५५॥
जो न तरे भवसागर, नर समाज अस पाय।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहीं, मिथ्या दोष लगाय।।
                                                        ( रामचरित मानस )
जो मनुष्य का जन्म लेने के बाद भी अपने आप का कल्याण नही करते  और दर-दर भटकते है वो लोग काल (समय) को, कर्म को और  ईश्वर को मिथ्या दोस लगते है   
पाप पुण्ये कारयति प्रक्रतिर्वसनामयी ! न तु प्रभुरिति प्रोक्तामाध्यएंयैव पञ्चमे !!
वदन्तः सर्वकर्तारमीश स्वमं अनुतिष्ठितम ! मयि आरोप्य वृथा पापम मूढा गच्छन्त्यसुयुताम !!
अर्थात - मनुष्य की वासनामय प्रक्रति ही कर्म को कराती न की प्रभु ,प्रभु तो मूल रूप से अकर्ता (निष्क्रिय) है अज्ञान में ही प्रभु को कर्ता कहा जाता है 
सुखस्य दुखस्य न कोअपि दाता ,परो ददाति कुबुद्धिरेषा ! 
अहं करोमीति व्रथाभिमाना: स्वकर्म सूत्र ग्रथितो ही लोक: !!                                    आध्यात्म रामायण      

अर्थात - सुख-दुःख का दाता वास्तव में कोई नहीं है कोई दूसरा दुःख-सुख देता है यही सवसे बड़ी मूर्खता है मै करता हूँ भी वृथा अभिमान ही है सम्पूर्ण लोक अपने-अपने स्वाभाव कर्म में बधे है !
अतः निष्कर्ष यही निकलता है की इन्सान को कार्यों में प्रेरित करने या लगाने में उसकी वासना का हाथ है न की जीव,प्रकृतिया ईश्वर का !   

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