सब कुछ व्यर्थ ही व्यर्थ (बाइबल से )

बाइबल की सभोपदेशक नामक पुस्तक के लेखक ने इस बात का एहसास किया जब उसने कहा, "व्यर्थ ही व्यर्थ! व्यर्थ ही व्यर्थ ! ...सब कुछ व्यर्थ है" (सभोपदेशक 1:2)। राजा सुलेमान के पास, जो सभोपदेशक का लेखक है, परिमाप से परे अथाह धन-सम्पत्ति थी, अपने या हमारे समय के किसी भी व्यक्ति से ज्यादा ज्ञान था, सैकड़ों स्त्रियाँ थीं, कई महल और बगीचे थे जो कि कई राज्यों की ईर्ष्या के कारण थे, सर्वोत्तम भोजन और मदिरा थी, और हर प्रकार का मनोरंजन उपलब्ध था। फिर भी उसने एक समय यह कहा कि जो कुछ उसका हृदय चाहता था, उसने उसका पीछा किया। और उस पर भी उसने यह सार निकाला कि, "सूरज के नीचे" - ऐसा यापन किया हुआ जीवन जैसे कि जीवन में केवल यही कुछ हो जिसे हम आँखों से देख सकते हैं और इन्द्रियों से महसूस कर सकते हैं - व्यर्थ है! ऐसी शून्यता क्यों है। क्योंकि परमेश्वर ने हमारी रचना आज-और-अभी का अनुभव करने के अतिरिक्त किसी और वस्तु के लिए भी की थी। सुलेमान ने परमेश्वर के विषय में कहा, "उसने मनुष्यों के मनों में अनादि-अनन्त काल का ज्ञान रखा …" (सभोपदेशक 3:11)। अपने हृदयों में हम इस बात को जानते हैं कि केवल "आज-और-अभी" ही सब कुछ नहीं है।

उत्पत्ति, बाइबल की पहली पुस्तक में हम पाते हैं, कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया (उत्पत्ति 1:26)। इसका अर्थ है कि हम किसी और के बजाय परमेश्वर के सदृश ज्यादा हैं (किसी भी अन्य प्रकार के जीवन से)। हम यह भी पाते हैं कि मनुष्य जाति के पाप में पड़ने से पहले और पृथ्वी शापित होने से पहले, निम्नलिखित बातें सत्य थीं : 1) परमेश्वर ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बनाया था (उत्पत्ति 2:18-25); 2) परमेश्वर ने मनुष्य को करने के लिए कार्य दिया (उत्पत्ति 2:15); 3) परमेश्वर की मनुष्य के साथ संगति थी (उत्पत्ति 3:8); 4) परमेश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर अधिकार दिया (उत्पत्ति 1:26)। इन विषयों का क्या महत्व है? परमेश्वर ने हर एक से चाहा कि वह हमारे जीवन में पूर्णता लाये, परन्तु इनमें से हर एक (विशेषकर मनुष्य की परमेश्वर के साथ संगति) के ऊपर मनुष्य के पाप में पड़ने से, और पृथ्वी के ऊपर शाप का परिणाम बनते हुए प्रतिकूल प्रभाव पड़ा (उत्पत्ति 3)

प्रकाशितवाक्य, जो बाइबल की अन्तिम पुस्तक है, परमेश्वर प्रगट करता है कि वह इस वर्तमान पृथ्वी और आकाश को जैसा कि हम उन्हें जानते हैं, सर्वनाश कर देगा, और एक नए आकाश और एक नई पृथ्वी की सृष्टि करेगा। उस समय, वह छुटकारा पाई हुई मानवजाति के साथ पूर्ण संगति को बहाल करेगा। जबकि छुटकारा न पाए हुए न्याय के बाद अयोग्य पाए गए और उन्हें आग की झील में डाल दिया गया (प्रकाशितवाक्य 20:11-15)। और पाप का शाप जाता रहेगा : और फिर पाप, दुख, बीमारी, मत्यु या दर्द नहीं रहेंगे (प्रकाशितवाक्य 21:4) 

और परमेश्वर उनके साथ वास करेगा, और वे उसके पुत्र होंगे (प्रकाशितवाक्य 21:7)। इस प्रकार, हम चक्र को पूरा कर लेते हैं: अर्थात् परमेश्वर ने अपने साथ संगति के लिए हमारी रचना की; मनुष्य ने उस संगति को तोड़ते हुए पाप किया, परमेश्वर उनके साथ अनन्तकाल की स्थिति में संगति को पुर्नस्थापित करता है। परमेश्वर से अनन्तकाल तक अलग होने के लिये केवल मरने के लिये जीवन की यात्रा को कुछ भी और सब कुछ पाते हुए पूरा करना व्यर्थता से भी अधिक बुरा है! परन्तु परमेश्वर ने न केवल अनन्त आनन्द सम्भव बनाने के लिए (लूका 23:43), अपितु इस जीवन को भी संतोषजनक और अर्थपूर्ण बनाने के लिये भी एक मार्ग बनाया है। यह अनन्त आनन्द और "पृथ्वी पर स्वर्ग" कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

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