वास्तविक शिक्षा (शिक्षा का सरल अर्थ सीखना व जानना होता है)
शिक्षा का स्वरूप
शिक्षा का सरल अर्थ सीखना व जानना होता है ৷शिक्षण संस्थाओ के माध्यम से विद्ध्यार्थियो को जो शिक्षा दी जाती है वह शिक्षा का साधारण रूप है
कक्षाओं को उत्तीर्ण कर लेना ,विश्वविद्यालयो की उपाधियो को प्राप्त करलेना ,किसी व्यबसाय के लिए तकनीकी शिक्षण ग्रहण करलेना शिक्षा का वस्तबिक स्वरूप नही है हम परीक्षाये पास करलेते है डिग्री होल्डर होजाते है और हम अपने आप को शिक्षित मानलेते है जबकि आजकी शिक्षा नक़ल मात्र है और आजके दोर में शिक्षा केवल जीविकोपार्जन तक ही सीमित रहगई है और विचार करेकि क्या मिलता है एसी शिक्षा से ? सिर्फ अहंकार ,शोषण करने का सूक्ष्म ढंग एवं स्वार्थ सिद्ध करने की तकनिकी और रोजीरोटी का सधन यह तो उच्च शिक्षा नही है क्योकि बहुतसे अशिक्षित लोग शिक्षित लोगों से ज्यादा कमाते है यह शिक्षा तो इक्कीसबी सदी में तो जिविकोपाजर्न में भी सक्षम नही है

जबकि आजकी शिक्षा केवल नकल मात्र रहगई है एक सर पर बोझ जैसा है -लेखक की लिखी हुई बाते याद करलेना यह तो कोई ज्ञान नही है वास्तविक शिक्षा के लिए ये सब बधाये है इस विचारक के द्रष्टिकोण से आज की शिक्षा छात्रों को गुलाम बनती है तथा जहाँ सत्य एवं प्रेम से हजारों मील दूर है व्यक्तित्व का पूर्ण विकाश नही होपारहा है निर्भयता एवं स्वतंत्रता नाम की कोई चीज नहीं है हा इसके बदले उदंडता एवं अहंकार का ही विकाश होता देखा जाता है
शिक्षा केवल स्कूल ,कोलेज एवं विद्ध्याल्यो तक ही सीमित नही होनी चाहिए इसकेलिए ये सम्पूर्ण प्रकृति ही खुला प्रांगण होना चाहिए जिससे हम सम्पूर्ण प्रकृति को महसूस करसके इसके अतिरिक्त शिक्षा समाप्त होने पर विद्ध्यार्थी २२-२५ वर्ष की अवस्था में अपनी रोजीरोटी में उलझ जाते है उसके वाद उसे शिक्षा से कोई मतलव नही रहता है
वास्तविक शिक्षा का स्वरुप तो यह है कि जिसके ज्ञान से व्यक्ति के अन्दर प्रेम ,सहानुभूति ,समता ,सहयोग ,उदारता ,सहनशीलता ,नम्रता ,एकत्व एवं संपूर्ण प्राणियों के लिए ह्रदय में दया ,करुणा का सगर होना चाहिए
इस के विपरीत समाज में देखा जारह है कि हीनता ,दीनता ,उदंडता ,चोरी ,व्यभिचार ,हत्या ,वलात्कार अत्याचार ,धोखा-धड़ी का ही साम्राज्य छाया हुआ है
शिक्षा वास्तव में वाहर से नहीं अन्दर से सुरू होनी चाहिए जीवन का प्रत्येक क्षण शिक्षा के लिए समर्पित हो तभी इस संसार के प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थो से शिक्षा ग्रहण कर समाज को लाभ पहुचाया जा सकता है
जैसे वादल बरसते है तो ये हमे यही शिक्षा देते की जब ये बरसते है तो सम्पूर्ण जीवों को शीतलता के साथ-साथ जीवनी शक्ति ,आनंद प्रदान करते है और हर तरफ हरियाली एवं खुशहाली भारजती है और हमें शिक्षा मिलती है की हमारे पास जो भी है वो सब हम वादलो की भांति वर्सादे और खली हो जाये तो परमात्मा हमें फिर से भर देगा और फिर जीवन अपने लिए नही वरन जिसने दिया है उसके लिए जिया जाता है
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदार्शिनः ৷৷ ५/18(श्रीमद्भाग्वात्गीता)
भावार्थ - पंडित (ज्ञानी) वही है जो विद्या, विनय सम्पन्न ब्राह्मण में, गौ में ,हाथी में,कुत्ता में, और चांडाल में समद्रष्टि वाला हो
शिक्षा का सरल अर्थ सीखना व जानना होता है ৷शिक्षण संस्थाओ के माध्यम से विद्ध्यार्थियो को जो शिक्षा दी जाती है वह शिक्षा का साधारण रूप है
कक्षाओं को उत्तीर्ण कर लेना ,विश्वविद्यालयो की उपाधियो को प्राप्त करलेना ,किसी व्यबसाय के लिए तकनीकी शिक्षण ग्रहण करलेना शिक्षा का वस्तबिक स्वरूप नही है हम परीक्षाये पास करलेते है डिग्री होल्डर होजाते है और हम अपने आप को शिक्षित मानलेते है जबकि आजकी शिक्षा नक़ल मात्र है और आजके दोर में शिक्षा केवल जीविकोपार्जन तक ही सीमित रहगई है और विचार करेकि क्या मिलता है एसी शिक्षा से ? सिर्फ अहंकार ,शोषण करने का सूक्ष्म ढंग एवं स्वार्थ सिद्ध करने की तकनिकी और रोजीरोटी का सधन यह तो उच्च शिक्षा नही है क्योकि बहुतसे अशिक्षित लोग शिक्षित लोगों से ज्यादा कमाते है यह शिक्षा तो इक्कीसबी सदी में तो जिविकोपाजर्न में भी सक्षम नही है

जबकि आजकी शिक्षा केवल नकल मात्र रहगई है एक सर पर बोझ जैसा है -लेखक की लिखी हुई बाते याद करलेना यह तो कोई ज्ञान नही है वास्तविक शिक्षा के लिए ये सब बधाये है इस विचारक के द्रष्टिकोण से आज की शिक्षा छात्रों को गुलाम बनती है तथा जहाँ सत्य एवं प्रेम से हजारों मील दूर है व्यक्तित्व का पूर्ण विकाश नही होपारहा है निर्भयता एवं स्वतंत्रता नाम की कोई चीज नहीं है हा इसके बदले उदंडता एवं अहंकार का ही विकाश होता देखा जाता है
शिक्षा केवल स्कूल ,कोलेज एवं विद्ध्याल्यो तक ही सीमित नही होनी चाहिए इसकेलिए ये सम्पूर्ण प्रकृति ही खुला प्रांगण होना चाहिए जिससे हम सम्पूर्ण प्रकृति को महसूस करसके इसके अतिरिक्त शिक्षा समाप्त होने पर विद्ध्यार्थी २२-२५ वर्ष की अवस्था में अपनी रोजीरोटी में उलझ जाते है उसके वाद उसे शिक्षा से कोई मतलव नही रहता है

वास्तविक शिक्षा का स्वरुप तो यह है कि जिसके ज्ञान से व्यक्ति के अन्दर प्रेम ,सहानुभूति ,समता ,सहयोग ,उदारता ,सहनशीलता ,नम्रता ,एकत्व एवं संपूर्ण प्राणियों के लिए ह्रदय में दया ,करुणा का सगर होना चाहिए
इस के विपरीत समाज में देखा जारह है कि हीनता ,दीनता ,उदंडता ,चोरी ,व्यभिचार ,हत्या ,वलात्कार अत्याचार ,धोखा-धड़ी का ही साम्राज्य छाया हुआ है
शिक्षा वास्तव में वाहर से नहीं अन्दर से सुरू होनी चाहिए जीवन का प्रत्येक क्षण शिक्षा के लिए समर्पित हो तभी इस संसार के प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थो से शिक्षा ग्रहण कर समाज को लाभ पहुचाया जा सकता है
जैसे वादल बरसते है तो ये हमे यही शिक्षा देते की जब ये बरसते है तो सम्पूर्ण जीवों को शीतलता के साथ-साथ जीवनी शक्ति ,आनंद प्रदान करते है और हर तरफ हरियाली एवं खुशहाली भारजती है और हमें शिक्षा मिलती है की हमारे पास जो भी है वो सब हम वादलो की भांति वर्सादे और खली हो जाये तो परमात्मा हमें फिर से भर देगा और फिर जीवन अपने लिए नही वरन जिसने दिया है उसके लिए जिया जाता है
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदार्शिनः ৷৷ ५/18(श्रीमद्भाग्वात्गीता)
भावार्थ - पंडित (ज्ञानी) वही है जो विद्या, विनय सम्पन्न ब्राह्मण में, गौ में ,हाथी में,कुत्ता में, और चांडाल में समद्रष्टि वाला हो
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