मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठतर इस संसार में और कुछ नहीं है।
"का भेद मनुष्यस्य?” शतपथ ब्राह्मण 5।5।2।2 की श्रुति है-
अर्थात् - इस
मनुष्य को भला कौन जानता है?

महर्षि व्यास ने
महाभारत लिखते लिखते एक अत्यन्त गुह्य रहस्य को प्रकट कर दिया है वे लिखते हैं-
गुह्य व्रत्याँ तदिदं
ब्रवीमि। नहि मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’
एक गुप्त
रहस्य बताता हूँ। मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठतर इस संसार में और कुछ नहीं है।
जिन देवताओं से वह तरह
तरह के वरदान पाने की मनुहार करता है वे वस्तुतः उसी की श्रद्धा एवं विश्वास के
छैनी हथौड़े से गढ़े हुए मानस पुत्र हैं। ‘भावो हि विद्यते देव’ की उक्ति से यह स्पष्ट
कर दिया गया है कि पत्थर के टुकड़े को देवता के समतुल्य समर्थ बना देने वाला
चमत्कार भावना के आरोपण से ही सम्भव होता है। उसे उठा लिया जाय तो देव प्रतिमा में
पत्थर के अथवा धातु खण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मनुष्य देवताओं को गढ़ता है
और स्वयं भी देवता बनता है- भजन्ते विश्वे देवत्वं
नामऋर्त सर्पन्तो अमृत मेवैः। -ऋग्वेद
ईश्वर का अविनाशी अंश
होने के कारण आत्मा के देव मन्दिर-इसी शरीर में समस्त देवताओं की बीज माताएँ
विद्यमान हैं। अंग प्रत्यंगों में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता विद्यमान है। उपेक्षा एवं
अवज्ञा के कारण वे मूर्छित स्थिति में मृतक तुल्य पड़े हैं। उन्हें जगाने का
प्रयास योग और तप द्वारा किया जाता है।पराञिच खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्माद् पराड्पश्यति नान्तरात्मन्।कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥
विधाता ने छेदों को बाहर की ओर छेदा (अर्थात् इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया) अतएव मनुष्य बाहर ही देखता है। अन्तर को नहीं देखता। अमृत की आकांक्षा करने वाला दूरदर्शी बिरला मनुष्य ही अन्दर की ओर देखता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि -
" बड़े भाग मानुष तन पावा | सुर दुर्लभ सदग्रंथनि गावा ||"
अर्थात - बड़े भाग्य से, अनेक जन्मों के पुण्य से यह मनुष्य शरीर मिला है जिसकी महिमा सभी शास्त्र गाते हैं कि यह देवताओं के लिए भी कठिन है | सार्थक जीवन मनुष्य जन्म कुछ अच्छा करने के लिए मिला है। इसलिए आज से ही सजग हो जाएं कि यह कहीं व्यर्थ न चला जाए। परमात्मा भी तभी प्रसन्न होता है, जब हम प्रयत्न-पुरुषार्थ और श्रम को एक साथ लेकर जीवन में सद्कार्य करते हैं। जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझते हैं, परंतु अफसोस आज का मानव विषयों के बंधन में फंसकर अपनी कश्ती डुबो रहा है। आदि शंकरचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि इस जीवन के रहते हुए यदि तुमने परमात्मा के नाम का सिमरन नहीं किया, तो तुमसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है।
संत कवीरदास जी कहते है कि -
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार, तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ - इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से
मिलता है।
यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
नानक देव जी भी कहते हैं कि -
ऐ मेरे प्यारे बंदों, यदि अब नहीं जगे, तो कब जागोगे? एक बार पांव पसर गए, तो फिर कुछ नहीं हो सकता है। सच तो यह है कि वह परमपिता परमेश्वर हर प्रात: हमारे हृदय मंदिर में शंखनाद करता है कि हे मनुष्य! उठ और उसे प्राप्त कर जिसे प्राप्त करने के लिए मैंने तुझे इस संसार में भेजा है। लेकिन आज का मानव सत्ता, संपत्ति और सत्कार के मद में इतना चूर है कि उसे उसकी ये बात सुनाई नहीं पड़ती हैं।
मैं एक निवेदन जरूर करना चाहूंगा कि इस दुनिया में हर कोई अकेला आया है, और अकेला ही जाएगा भी। इसलिए परमात्मा के बही खाते में सबका हिसाब भी अलग-अलग है। ध्यान रखें कि उसे निर्मल और भोले मन वाले लोग ही पसंद हैं। वहां कोई चालाकी या कूटनीति काम नहीं करती। यदि आज आपका कुछ अच्छा हो रहा है, तो इसमें आपके पिछले जन्मों के बोए हुए बीज हैं। आज आप जो बोएंगे, उसे कल काटेंगे। किए हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।जो इस संसार में आया है, उसका जाना भी निश्चित है। यहां कुछ भी शाश्वत नहीं है, सब कुछ क्षणभंगुर है, परिवर्तनशील है। इसलिए इसकी अनित्यता को समझें। यह संसार भोर के टिमटिमाते हुए तारे की तरह है, देखते-देखते नष्ट हो जाता है। मानव जीवन की भी यही स्थिति है। यदि मनुष्य काल रूपी मृत्यु को समझे, तो मुझे विश्वास है कि वह गलतियां कम करेगा। आइए, एक संकल्प लें झूठी अकड़ को छोडऩे का। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ी से बड़ी सफलता मनुष्य को असफलता की खाई में अंतत: पटकेगी। बस, साथ जाएगा तो किया हुआ हमारा सद्कार्य। सेवा की तरफ मानवीयता की रक्षा के लिए यदि हमारे हाथ बढ़ सकेंगे, तो यही हमारी सच्ची पूंजी होगी।मानवता सबसे बड़ा धर्म है |
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